सीएए का विरोध है औचित्यहीन


गृहमंत्री अमित शाह द्वारा लोक सभा चुनाव के पूर्व नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लागू करने के बयान के बाद तो केवल तिथि की प्रतीक्षा थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे लागू करके सभी कयासबाजी पर विराम लगा दिया।
इस मामले में विरोधियों की प्रतिक्रियाएं वही हैं जैसी संसद में पारित होने के पूर्व से लेकर लंबे समय बाद तक रही है। यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि आखिर ऐन चुनाव के पूर्व ही इसे लागू करने की क्या आवश्यकता थी? अगर लागू नहीं किया जाता तो चुनाव में विरोधी यही प्रश्न उठाते कि इसे लागू क्यों नहीं कर रहे?
कानून पारित होने के बाद नियम तैयार करने के लिए गृह मंत्रालय को सात बार विस्तार दिया गया था। नियम बनाने में देरी के कई कारण रहे। कानून पारित होने के बाद से ही देश कोरोना संकट में फंस गया और प्राथमिकताएं दूसरी हो गई। दूसरे, इसके विरु द्ध हुए प्रदर्शनों ने भी समस्याएं पैदा की। अनेक जगह प्रदर्शन हिंसक हुए, लोगों की मौत हुई और दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे तक हुए। तीसरे, विदेशी एजेंसियों और संस्थाओं की भी इसमें भूमिका हो गई। चौथे, सर्वोच्च अदालत में इसके विरु द्ध याचिकाएं दायर हुई। इन सबसे निपटने तथा भविष्य में लागू करने पर उनकी पूनरावृत्ति नहीं हो इसकी व्यवस्था करने में समय लगना ही था। मूल बात यह नहीं है कि इसे अब क्यों लागू किया गया। मूल यह है कि इसका क्रियान्वयन आवश्यक है या नहीं और जिन आधारों पर विरोध किया जा रहा है क्या वे सही है?
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि कानून उन हिन्दुओं, सिख, बौद्ध, जैन, पारसियों और ईसाइयों के लिए है, जो 31 दिसम्बर , 2014 को या उससे पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से धार्मिंक उत्पीडऩ के कारण पलायन कर भारत आने को विवश हुए थे। यानी यह कानून इनके अलावा किसी पर लागू होता ही नहीं। नागरिकता कानून, 1955 के अनुसार अवैध प्रवासियों को या तो जेल में रखा जा सकता है या वापस उनके देश भेजा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने इनमें संशोधन करके अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी भारत में रु कने तथा कहीं भी आने-जाने की छूट दे? दी थी  तो विशेष प्रावधान के द्वारा आधार कार्ड, पैन कार्ड, बैंक में खाता खुलवाने, अपना व्यवसाय करने या जमीन तक खरीदने की अनुमति दी गई।
इस तरह उन्हें भारत द्वारा अपनाने की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी। निस्संदेह, इस कानून के बाद उत्पीडि़त वर्ग भारत आना चाहेंगे। पर इस समय जनवरी 2019 की संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार इनकी कुल संख्या 31, 313 है।  ये सब भारत में वर्षो से रह रहे हैं। आज विरोध करने वाले विपक्षी दलों के दोहरे आचरण के कुछ उदाहरण देखिए। एक, राज्य सभा में 18 दिसम्बर, 2003 को मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘विभाजन के बाद बांग्लादेश जैसे देशों से बहुत सारे लोग भारत आए थे। यह हमारा नैतिक दायित्व है कि अगर परिस्थितियां इन दुर्भाग्यशाली लोगों को भारत में शरण लेने के लिए बाध्य करें तो हमारा रवैया इनके प्रति और अधिक उदार होना चाहिए।Ó दो,  4 फरवरी, 2012 को माकपा के महाधिवेशन ने बाजाब्ता पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश से आए हिन्दू-सिख-बौद्धों को नागरिकता दिए जाने का प्रस्ताव पारित किया था।
तीन, 3 जून, 2012 को माकपा नेता प्रकाश करात ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर बांग्लादेश से आए लोगों को मानवाधिकार के चलते नागरिकता देने की मांग की थी। चार, पश्चिम बंगाल में इस कानून को लागू न करने का विधानसभा में प्रस्ताव पारित करने वाली ममता बनर्जी ने 4 अगस्त, 2005 को लोक सभा में यह मामला उठाते हुए हिन्दुओं को नागरिकता देने की मांग की थी। यह विषय आजादी के समय से ही चला रहा है। महात्मा गांधी ने 26 सितम्बर ,1947 को प्रार्थना सभा में कहा था कि हिन्दू और सिख वहां नहीं रहना चाहते तो वे भारत आएं। भारत का दायित्व है कि उन्हें यहां केवल रहने ही नहीं दे, उनके लिए रोजगार सहित अन्य व्यवस्था करें।  डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के राईटिंग्स एंड स्पीचेज  के 17 वें वॉल्यूम के पृष्ठ संख्या 366 से 369 तक में विचार लिखे हैं। बाबा साहब ने 18 दिसम्बर, 1947 को प्रधानमंत्री पं. नेहरू पत्र लिखकर अनुरोध किया कि पाकिस्तान सरकार से कहें कि अनुसूचित जातियों के आने के रास्ते बाधा खड़ी न करे।
नेहरू जी ने 25 दिसम्बर, 1947 जवाब में लिखा कि हम अपनी ओर से जितना हो सकता है पाकिस्तान से अनुसूचित जातियों को निकालने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
स्वयं को अंबेडकरवादी कहने वाले अगर इस कानून का अभी भी विरोध कर रहे हैं तो इससे अनैतिक आचरण कुछ नहीं हो सकता। नागरिकता संशोधन कानून बाबा साहब अंबेडकर के विचारों को साकार करने वाला है। वास्तव में यह मानवता की रक्षा के लिए बना प्रगतिशील कानून है। भारत विभाजन के बाद तीनों देशों से उम्मीद की गई थी कि वे अपने यहां अल्पसंख्यकों को पूरी सुरक्षा प्रदान करेंगे। विभाजन के समय अल्पसंख्यकों की संख्या पाकिस्तान में 22 प्रतिशत के आसपास थी जो आज दो प्रतिशत भी नहीं है। बांग्लादेश की 28 प्रतिशत हिन्दू आबादी 8 प्रतिशत के आसपास रह गई है। अफगानिस्तान में तो बताना ही मुश्किल है। वे या मुसलमान बना दिए गए, मार दिए गए या फिर भाग गए। आज के बांग्लादेश और तब के पूर्वी पाकिस्तान सहित पूरे पाकिस्तान में गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर उत्पीडऩ की घटनाओं के बीच 8 अक्टूबर, 1950 को नई दिल्ली में नेहरू लियाकत समझौता हुआ। इसमें दोनों देशों ने अपने यहां अल्पसंख्यकों के संरक्षण, जबरन धर्म परिवर्तन न होने देने सहित अनेक वचन दिए।
भारत ने आज तक इसका शब्दश: पालन किया है जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने इसके विपरीत आचरण किया। यही कारण है कि आज भारत में उस समय के 9.7 प्रतिशत मुसलमान की संख्या 15 फीसद के आसपास हो गई और उन देशों में घटती चली गई। जब अपने धर्म का पालन करते हुए निर्भय होकर सुरक्षित जीने तक की स्थिति नहीं है तो क्या उनको इन देशों के मजहबी कट्टरपंथी व्यवस्था के हवाले ही छोड़ दिया जाए? वास्तव में नागरिकता संशोधन कानून के क्रियान्वयन के साथ दशकों से उत्पीडि़त शर्णार्थियों को राहत की सांस लेने और सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर मिलेगा। इनकी सांस्कृतिक, सामाजिक भाषायी सभी प्रकार के पहचाने की रक्षा हो सकेगी।

Back to top button