इलेक्ट्रोल बांड : छिपाइए नहीं, बताइए

लोकतांत्रिक शासन में चुनाव से ही पारदर्शिता और निष्पक्षता बरतने का आग्रह एक न्यूनतम अपेक्षा है। आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा एवं इनसे जुड़े विदेशी समझौतों को ही इसके दायरे से बाहर रखा जा सकता है।
पर देश के राजनीतिक दलों को जिस इलेक्ट्रोल बांड के जरिए चंदा देने की व्यवस्था अपारदर्शी भीत्ति पर बनाई गई थी। इससे यह खुलासा नहीं हो रहा था कि कब, कौन, किस पार्टी को और कितना धन चंदे में दे रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय ने बांड जारी करने वाला एकमात्र बैंक एसबीआई है, नियमत: यह काम आरबीआई का था, उसे 15 फरवरी को ही इसके सारे ब्योरों को चुनाव आयोग को देने की बात कही थी ताकि वह अपनी साइट पर सार्वजनिक करे। पर एसबीआई जो वित्त मंत्रालय के अधीन है, उसने न्यायालय के निर्देश का दो हिस्सों में और वह भी आधा-अधूरा पालन किया। बैंक ने पहले हिस्से में बांड खरीद की तारीख, खरीदने वालों के नाम और उसकी कीमत बताई है।
दूसरे में बांड को भुनाने की तारीख, पार्टी के नाम और उसकी कीमत दी है। एक तीसरी कॉपी भी जारी की है, जिसमें बांड की कीमत, उसे देने और भुनाने वालों के नाम और तिथियां हैं। ये आयोग की वॉल पर हैं। पर इनमें वह यूनिक कोड नहीं है, जिससे तमाम ब्योरों का समग्रता में खुलासा करने और इस तरह सरकार बनने की पहली दहलीज से ही पण्राली में पारदर्शिता लाने का न्यायालय का मूल मकसद ही नहीं पूरा हो रहा है।
इसलिए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को बांड के यूनिक कोड के साथ तमाम ब्योरे 21 मार्च को शाम 5 बजे से पहले अंतिम रूप से जारी करने के लिए एसबीआई को कड़ी फटकार लगानी पड़ी। न्यायालय चाहता है कि बैंक यूनिक कोड के साथ एक समग्र और अंतिम ब्योरा दे।
इसके लिए उसे दो हिस्सों में ब्योरा देना होगा। पहले में बांड के खरीदने की तारीख, खरीदने वालों के नाम, उसके यूनिक कोड, और उसकी कीमत हो। दूसरे हिस्से में, बांड भुनाने की तारीख, भुनाने वाली पार्टी, बांड के यूनिक कोड और उसका मूल्य दिया जाए ताकि आम जन बांड खरीदने वाले और इसको भुनाने वाले के साथ मिलान कर सके। इससे पार्टयिां और उन्हें चंदे देने वाली कंपनी-घरानों की नींद उड़ी हुई है।
पर सर्वोच्च न्यायालय की पहल से चुनावी चंदे की स्वीकार्य नैतिक व्यवस्था बनेगी जिसका असर चुनावों के बेलगाम खर्चे पर नियंतण्रके रूप में होगा। इसके लिए देश में कब से चल रही बहस एक निर्णायक आकार ले सकेगी।

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