
लखनऊ।
कर्म की सिद्धि-असिद्धि में जो शान्त रहता है, वह योगी है-स्वामी जी
श्री श्री दुर्गा पूजा के महाष्टमी के पावन अवसर पर रविवार के प्रातः कालीन सत् प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानंद जी ने बताया कि केवल सन्ध्या वंदना आदि नित्य कर्म अग्नि साक्षी करके परित्याग करना ही संन्यास नहीं है। जो व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए अपना कर्म फल परित्याग कर देते हैं वो भी संन्यासी जैसा ही वंदनीय है।
यह बात श्रीमद्भगवद्गीता (6:1) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया –
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स संन्यासी च योगी च न निरन्गिर्न चाक्रिय: ।।
अर्थात श्रीभगवान बोले – जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का परित्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला भी योगी नहीं है।
स्वामी जी ने बताया कि हम जानते हैं कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीनों शरीर कर्म का फल है लेकिन तीनों में से किसी का भी आश्रय न लेकर इनको सबके हित में लगाना चाहिए।
अर्थात स्थूल शरीर से क्रियाओं और पदार्थों को संसार का ही मानकर उनका उपयोग संसार के हित में सेवा रूप से करें। सूक्ष्म शरीर से दूसरों का हित कैसे हो यह सब चिंतन करें और कारण शरीर से समाधि का फल संसार के हित में अर्पण करें।
स्वामी जी ने कहा कि कर्तव्य कर्म उसे कहते हैं जिसको हम सुख पूर्वक कर सकते हैं जिसको अवश्य करना चाहिए और जिसका त्याग कभी नहीं करना चाहिए। कर्तव्य कर्म न असंभव है न ही कठिन है।
कर्म दो प्रकार से किए जाते हैं, कर्म फल की प्राप्ति के लिए और कर्म तथा उसे फल की आसक्ति मिटाने के लिए। इस प्रकार कर्म करने वाले जो संन्यासी और योगी हैं, वो कर्तव्य कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है इसलिए वो संन्यासी है और उन कर्तव्य कर्म को करते हुए सुखी-दु:खी नहीं होता अर्थात कर्म की सिद्धि असिद्धि में शान्त रहता है, इसलिए वह योगी है।
स्वामी जी ने बताया कि तात्पर्य हुआ कि कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्म करने से उसके कर्तृत्व का नाश हो जाता है अर्थात उसका न तो कर्म के साथ संबंध रहता है न फल के साथ ही संबंध रहता है, इसलिए वो संन्यासी है। वो कर्म करने में और कर्म फल की प्राप्ति-अप्राप्ति उदासीन रहता है इसलिए वह योगी है।
पक्षांतर में केवल अग्नि रहित होने से संन्यासी नहीं होता है। अर्थात जिसने दिखाने के लिए यज्ञ, हवन आदि का त्याग कर लिया लेकिन भीतर में क्रियाओं और पदार्थ की आसक्ति है वो कभी संन्यासी नहीं हो सकता।
स्वामी मुक्तिनाथानंद जी ने कहा अतएव भगवान की यह वाणी याद रखते हुए अगर हम सचमुच ईश्वर प्राप्त करना चाहते हैं तब भगवान की यह वाणी याद रखते हुए भगवान के चरणों में आंतरिक प्रार्थना करते रहे ताकि हमारा मन आसक्ति रहित हो जाए एवं हम अपना-अपना कर्तव्य कर्म फल कामना रहित होकर करते रहे एवं इससे हमारा चित्त शुद्ध हो जाएगा तब वह शुद्ध चित्त में हम ईश्वर के दर्शन करते हुए यह जीवन सफल और सार्थक कर लेंगे।
स्वामी मुक्तिनाथानन्द
अध्यक्ष
श्री रामकृष्ण मठ लखनऊ।
