बिहार आज फिर लोकतंत्र के दरबार में खड़ा है। 121 विधानसभा सीटों पर मतदान के साथ 2025 के चुनावी महायज्ञ का पहला अध्याय आरंभ हो चुका है। कहने को यह एक नियमित चुनावी प्रक्रिया है, परंतु इसके भीतर झाँकें तो यह चरण न केवल नीतीश कुमार की साख, बल्कि तेजस्वी यादव की विश्वसनीयता और प्रशांत किशोर की संभावना, तीनों की एक साथ परीक्षा है।देखा जाये तो बिहार की राजनीति में गठबंधन अब स्थायी विचारधारा नहीं, बल्कि चुनावी गणित बन गए हैं। 2020 में जो साथी थे, 2025 में वे प्रतिद्वंदी बन चुके हैं। चिराग पासवान की एलजेपी (रामविलास) अब एनडीए के साथ है, जबकि मुकेश सहनी की वीआईपी विपक्षी पाले में। यह फेरबदल बताता है कि बिहार में विचार से अधिक वोट बैंक की गणना ही राजनीति की धुरी बन चुकी है।
हम आपको याद दिला दें कि आज जिन सीटों पर मतदान हो रहा है उस पर 2020 में महागठबंधन ने 61 और एनडीए ने 59 सीटें जीती थीं। माना जा रहा है कि सिर्फ 0.37% वोट का अंतर इस बार निर्णायक हो सकता है। हम आपको यह भी बता दें कि 2024 के लोकसभा चुनावों में एनडीए ने इन्हीं सीटों पर 95 विधानसभा खंडों में बढ़त हासिल की थी, यानी जनमत का रुख बदल भी सकता है और ठहर भी सकता है।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या लोकसभा का रुझान विधानसभा में भी दोहराया जा सकेगा या राज्य स्तर पर अलग जनभावना उभरेगी।
खास बात यह भी है कि इस बार का चुनाव केवल दो खेमों का नहीं रहा। रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर ने ‘जन सुराज’ के रूप में नई पारी शुरू की है। उनकी अपील जातीय समीकरणों से ऊपर सामाजिक सुधार और नीतिगत राजनीति की है, परंतु बिहार के चुनावी मैदान में आदर्श कितनी जमीन पाते हैं, यह देखना बाकी है। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि पहले चरण के 1,314 उम्मीदवारों में से 354 पर गंभीर आपराधिक मामले हैं। यह आँकड़ा केवल चुनावी नहीं, नैतिक प्रश्न भी खड़ा करता है। सवाल उठता है कि क्या बिहार के मतदाता फिर उन्हीं चेहरों को चुनेंगे जिन पर कानून का शिकंजा है? या यह चुनाव नई राजनीतिक शुचिता की शुरुआत करेगा?
दूसरी ओर, मतदान केंद्रों पर उत्साह तो दिखा पर बिहार में यह उत्साह अक्सर निराशा के साथ टकराता है। विकास, शिक्षा, रोजगार, ये वही मुद्दे हैं जो हर चुनाव में गूंजते हैं पर हर बार अधूरे रह जाते हैं। परन्तु इस बार मतदाता इन पुरानी प्रतिज्ञाओं की कसौटी पर नेताओं को परख रहे हैं।
उधर, प्रधानमंत्री मोदी का “पहले मतदान, फिर जलपान” हो या प्रियंका गांधी का “अपने भविष्य को तय करने का दिन”, ये केवल अपीलें नहीं, बल्कि बिहार के मतदाता की चेतना को जगाने का प्रयास हैं। लालू प्रसाद यादव के परिवार सहित मतदान करने का दृश्य, तेजस्वी यादव की भावुक अपील और एक नेता का भैंस पर सवार होकर मतदान केंद्र पहुँचना, ये सभी दृश्य बिहार की राजनीतिक लोकसंस्कृति का जीवंत रूप हैं, जहाँ लोकतंत्र अब भी मिट्टी की गंध में सांस लेता है।
बहरहाल, पहला चरण इस चुनाव का केवल प्रारंभ है, पर इसमें ही पूरे चुनाव की दिशा के संकेत छिपे हैं। सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार अपने गठबंधन की डगमगाती नाव को फिर पार लगाएंगे? और क्या तेजस्वी यादव युवा जोश को वास्तविक सत्ता में बदल पाएंगे? या बिहार एक बार फिर ‘तीसरी ताकत’ की तलाश में निकल पड़ेगा? जो भी परिणाम हो, आज बिहार के मतदाता यह तय कर रहे हैं कि आने वाले पाँच सालों में लोकतंत्र केवल नारा रहेगा या वास्तविक जनादेश की शक्ति बनेगा।


















































































































































































































































































































































































































































