तालिबान की क्रूरताओं से इस्लामी दुनिया भी हुई शर्मसार

डे नाईट न्यूज़ अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज तालिबान अब इस्लामी दुनिया में भी अलग-थलग पड़ने लगा है। यूनिवर्सिटी में महिलाओं की पढ़ाई प्रतिबंधित करने के सवाल पर दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ-साथ इस्लामी देशों में भी उसकी कड़ी निंदा हुई है। सोमवार को इसमें इस्लामी देशों के संगठन ओआईसी ने भी अपना स्वर जोड़ दिया। ओआईसी के महासचिव हिसेन ब्राहिम ताहा ने एक बयान जारी इस प्रतिबंध पर अपनी चिंता जताई। उन्होंने कहा कि इस फैसले से न सिर्फ अफगान महिलाएं आजीविका के अवसरों से वंचित हो जाएंगी, बल्कि तालिबान के ताजा फैसले का असर अफगानिस्तान में चलने वाले अंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता कार्यक्रमों पर भी पड़ेगा।

उधर सऊदी अरब और पाकिस्तान ने भी इस फैसले की आलोचना की है। सोमवार को सऊदी अरब के विदेश मंत्री फैसल बिन फहरान अल साउद और पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने अपनी फोन पर हुई वार्ता के दौरान अफगानिस्तान की स्थिति पर चर्चा की। इसके बाद जारी एक बयान में बताया गया कि दोनों विदेश मंत्रियों ने महिलाओं के सभी अधिकारों और जीवन के हर क्षेत्र में उनकी समान भागीदारी को सुनिश्चित करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई।

तालिबान शासन ने यूनिवर्सिटीज में महिलाओं की पढ़ाई पर रोक लगाने का एलान 24 दिसंबर को किया था। उसी दिन उसने अफगानिस्तान में कार्यरत सभी स्थानीय और विदशी गैर-सरकारी संगठनों को आदेश दिया था कि वे अपने सभी महिला कर्मचारियों का काम पर आना रोक दें। तालिबान ने धमकी दी है कि अगर इस संगठनों ने ऐसा नहीं किया, तो उन्हें अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिले लाइसेंस रद्द कर दिए जाएंगे।

इसके पहले तालिबान मुजरिमों को सार्वजनिक रूप से सजा देने और महिलाओं को स्कूली शिक्षा से वंचित करने के कदम उठा चुका है। अफगानिस्तान में लोगों को सरेआम कोड़े लगाए जाने के वीडियो अब अकसर सोशल मीडिया पर देखने को मिल रहे हैं। अफगानिस्तान की स्थिति पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि इस वर्ष तालिबान ने घोर कट्टरपंथी कदम उठाए। इससे ये उम्मीद टूट गई है कि इस बार तालिबान सरकार अधिक उदार रुख अपनाएगी। उलटे 1990 के दशक में तालिबान जैसे कट्टरपंथी तौर-तरीकों के लिए बदनाम हुआ था, वे फिर से चलन में आ गए हैं। 

मौजूदा तालिबान शासन के तहत इस वर्ष अगस्त में पहली बार किसी व्यक्ति को चौराहे पर मृत्युदंड दिया गया। दर्जनों लोगों के सामने उसे राइफल से तीन गोलियां मारी गईँ। जिस व्यक्ति को ये सजा दी गई, उस पर पांच साल पहले एक अन्य व्यक्ति की हत्या करने का आरोप था। अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार संगठन ऐसे तौर-तरीकों की निंदा करते रहे हैं। अगस्त की घटना के बाद संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने उस घटना को ‘अमानवीय’ और ‘गरिमाहीन’ करार दिया था। समिति ने कहा- अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार कानूनों के तहत ऐसी क्रूर सजाओं की सख्त मनाही है।

लेकिन ऐसी ऐसी आलोचनाओं से तालिबान अधिकारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। अफगानिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के प्रवक्ता मावलावी इनायतुल्लाह ने वेबसाइट निक्कईएशिया.कॉम से बातचीत में ऐसी सजाओं का समर्थन किया। उन्होंने कहा- ‘अपराध की पुष्टि इकबालिया बयान या गवाह के बयान से की जाती है। फिर पवित्र कुरान, हदीस और हनफी न्यायशास्त्र के तहत सजा मुकर्रर की जाती है। सजा शरिया सिद्धांतों के तहत प्रतिशोध के रूप में कोड़ा मारने, अंग काटने आदि की हो सकती है।’

अब ऐसा लगता है कि तालिबान के इस क्रूर नजरिए से इस्लामी दुनिया भी खुद को असहज महसूस करने लगी है। ओआईसी के बयान को इसी का संकेत माना जा रहा है।

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